जाने , अजाने , पहचाने ,
भीड़ के चहरे ,
कलम और कूंची से ,
बने चहरे ,
हमेशा से ,
ढकेलते रहे हैं ,
और रहेंगे ,
शून्य में.
नियति है ,
यह सारे चहरे होंगे ,
नकाब चढे .
में नहीं चाहता
फिर भी
चढ़ा लेता हूँ ,
नकाब
अपने खोकले चहरे पर ,
जिसमें
द्रष्टि के लिए
छेद नहीं है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें