मंगलवार, 27 जुलाई 2010

ARVIND MISHRA

जाने , अजाने , पहचाने ,
भीड़ के चहरे ,
कलम और कूंची से ,
बने चहरे ,
हमेशा से ,
ढकेलते रहे हैं ,
और रहेंगे ,
शून्य में.

नियति है ,
यह सारे चहरे होंगे ,
नकाब चढे .
में नहीं चाहता 
फिर भी
चढ़ा लेता हूँ ,
नकाब
अपने खोकले  चहरे पर ,
जिसमें 
द्रष्टि  के लिए
छेद  नहीं है.

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