बुधवार, 29 दिसंबर 2010





अडिग को जनपद विभूति अवार्ड 


शाहजहांपुर फेस्टिवल - २०१० का पुरूस्कार वितरण के साथ समापन 




साहित्य के छेत्र के ओमप्रकाश " अडिग" को जनपद 


विभूति - २०१० से अलिंक्रित किया गया


शायद  अब ठण्ड पडे


पेड़ों ने दाल दिए  फूल,
पात के दुकूल,
शायद अब ठण्ड पडे!!
साफ़ लगा होने,
है नीला आकाश,
पर्त लगी माटी की,
सागर के पास!!
बैठ रही नीचे  है धूल!
शायद अब ठण्ड पडे!!
आया है श्वेत खगो का ,
पहला झुण्ड,
संध्या के माथे पर,
चाँद का त्रिपुंड,
तीखे कुछ और हुए शूल,
शायद अब ठण्ड पडे!!
कौन सके संख्याएँ ,
तारों की गिन !
छोटे आरम्भ हुए-
होने हैं दिन !!
दोहराने प्यार लगा  भूल,
शायद अब ठण्ड पडे !!





शनिवार, 25 दिसंबर 2010

थोड़ी देर और बैठो तुम



थोड़ी देर और बैठो तुम 
मेरे जीवन की आशा बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !
सब आते जाते रहते हैं ,
भव नदिया में सब बहते हैं,
जीवन में अपनी पीड़ा को-
सब रोते हैं,सब कहते हैं!
मेरे गीतों की भाषा बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !
इतनी भीड़ कहाँ होती है ,
अपना दोष नहीं धोती है,
चलते फिरतों की आंखें भी-
नम होती हैं औ रोटी हैं !!
मेरी प्यासी अभिलाषा बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !
होता कौन यहाँ अपना है ,
अपनापन केवल सपना है ,
नींद नहीं जाने क्यों आती?
किस आशा में फिर जगना है?
मेरे प्राणों  की श्वांसा  बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !!   


                 ओमप्रकाश  ' अडिग'               { संकुल}


    

तुम ज़रूर आओगे

तुम ज़रूर आओगे 


फूलों के चहरे
शबनम ने धोये हैं 
दूब खिलखिला कर  हंस रही है 
चिड्या
चहक रही है पेड़ों की शाखाओं पर 
नीम के पेड़ पर बैठा कौवा 
मेहमान आयेंगे बता रहा है
सुनहरी दिशाएँ मुस्करा  रही हैं
हवा सरसराती हुई 
अपना दुपट्टा लहराती है
मुझे विश्वास है 
आज तुम ज़रूर आओगे 
नई सुबह बनकर
सुखद  समाचार के साथ संभवत:


{ आक्रोश से  लेखक  अचल लछमण विशवास }

आक्रोश

आक्रोश 
{प्रतिनिध  कविताएँ }
अचल लक्छ्मन  विशवास


मांडवी प्रकाशन  , गाज़ियाबाद 


मूल्य : १५०/-


इस्बं-८१-८२१२-०८८-८ 

संकुल

संकुल 


ओमप्रकाश "अडिग'


विकास  प्रकाशन   शाहजहांपुर [ उ .प्र.]


मूल्य  १००/-


इस्बं : ८१-०४५५५-९-६



सोमवार, 6 दिसंबर 2010

श्री गाँधी पुस्तकालय

श्री   गाँधी पुस्तकालय , चौक  में ०४ .१२.२०१०  की साँय ०६ बजे कवी सम्मलेन अवम मुशाइरा  का गंगा-जमुनी कार्यक्रम सम्पन्न हुआ  कौमी एकता पखवाडे के सन्दर्भ में हुए इस  सुरिचिपूर्ण  कार्यक्रम में  वरिष्ट शायर श्री खालिद अल्वी ने अध्य्छ्ता  करते हुए श्रोताओं को सोचने  को मजबूर करते हुए कहा.




" गुरूरो  किब्र  वालों को कोई  भी  नाम मत देना ,
सुना है नींद में चलने की बीमारी भी होती है. "

इस अवसर पर उस्ताद शायर साग़र वारसी  ने तरन्नुम के साथ गुनगुनाया :


"अच्छी फसलें हो रही हैं फिर भी खुशहाली नहीं ,
एक दहकाँ कह रहा था ,खैरो-बरकत उड़  गई . "


कौमी एकता पर सटीक समाधान प्रस्तुत करते गाँधी पुस्तकालय  के सचिव , नवगीत के स्थापित  हस्ताछर  अजय गुप्त ने अपने चिरपरिचित  शैली  में कहा 

"खुशनुमा सुहाना मौसम है , हो चुकी तपिश कुछ तो कम है ,
बीते मौसम की बदअमनी,हम भी भूलें तुम भी भूलो .

वरिष्ठ गीतकार श्री बृजेश मिश्र  ने अपनी विशिष्ट शैली में प्रेम गीत गुनगुनाते हुए वाह वाही  बटोरी.

" साथी अभी मौन मत तोड़ो थोडा भ्रम  बना रहने दो ,
मालूम नहीं सुबह  कैसी हो ,ये तम अभी घना रहने दो. "


अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त प्रसिद्ध शाएर  श्री अख्तर शाह्जाहंपुरी ने ये शेर कहा.
"अजब एक भीड़ सी है मेरे अदंर,
में तनहा हो के भी  तनहा नहीं हूँ,
में तरो-ताज़ा  दिखाई दूंगा "अख्तर"
किसी बीमार का चेहरा नहीं हूँ. "


स्थापित कविवर  डॉक्टर त्रिपाठी ने गीत की परिभाषा  करते हुए प्रशंसानिये प्रेम गीत पढ़ा 
"नहीं आवश्यक  की कुछ बोलें ,भावनाएँ जब सघन हो लें ,
करैं कितने ही बहाने पर ,नयन मन के भेद सब खोलें ,
प्राण का संगीत समझो ,मौन को ही गीत समझो . "

गोष्ठी कप गति प्रदान करते हुए  श्रोताओं की करतल ध्वनि  के मध्य गुनगुनाते  महबूब शाहजहांपुरी ने  कहा 

"गलत में था न ,हमसाया गलत था ,
किसी ने उसको समझाया गलत था ."

प्रसिद्ध शायर डा. ममनून ने अपनी बात कुछ इस तरह से कही ,श्रोता उनके तरन्नुम पर झूम उठे
"शोर कैसा है आज बस्ती में , क्या कोई दरमियान से उठता है ."
जब भी सहरा की सिम्त बढ़ता हूँ,एक बगूला वहाँ से उठता है "

मध्य रात्री तक चली काव्य गोष्टी में रसग्य श्रोताओं की उपस्तिथ में  सर्वश्री  ख्याल्गो लल्लन बाबू ,असगर यासिर , दीपक कंदर्प  ज्ञानेंद्र मोहन ज्ञान ,फहीम बिस्मिल , उमेश चन्द्र सिंह  ने काव्य  पाठ किया . गोष्ठी का सफल संचालन  व्यंगकार श्री अरविन्द मिश्र ने किया . आभार ज्ञापन पुस्तकालय के  संरछक  भू.पु.जोइंट कोमिशनोर श्री विजय कुमार ने किया 



" अपना घर है यहाँ मत डरो, जैसा जी चाहे वैसा करो ".......लल्लन बाबू

"खुदा जाने होंगे ख़त्म कब  लम्हे सफ़र वाले ,
बड़ी शिद्दत से याद आते हैं  मुझको अपने घर वाले."    .......असगर यासिर.


नई ज़मीन नए आसमान वाले हैं,

हमारे ख्वाब बहुत आनबान वाले हैं ,
हमारे खून में है  शामिल महक वफाओं की ,
की हम शहीदों के ही खानदान वाले हैं "................फहीम बिस्मिल