सोमवार, 5 जुलाई 2010

बीजपल

थके उबे तिरस्कृत पल भी ,
चुरा लाते हैं ,
तुम्हारी फेनिल हंसी ,
गंधित मुस्कान ,
और
उत्सवी पहचान ,
बहुत चुपके ।
वोह पहचान
दुबक जाती है
कहीं मेरे में
मेरे जड़ को
चेतन करने
मेरे अधिगमन को
अध्यात्म बनाने


.................क्रिशनआधार मिस्र

1 टिप्पणी:

  1. यह किस जुर्म की अब सज़ा दी गई ,
    की शाखे -नशेमन जला दी गई.

    जहां के मकीं हद से आगे बढे ,
    वोह बस्ती ही एक दिन मिटा दी गई.

    जो तस्वीर आँखों मैं रखने को थी
    वोह बाज़ार मैं क्यों सजा दी गई.

    मसीहाई का जिस ने दावा किया ,
    तो ज़ख्मों की उसको क़बा दी गई.

    अज़ल से जो वजहे-ताल्लुक रही ,
    वही बात "अख्तर" भुला दी गई.

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