बुधवार, 29 दिसंबर 2010





अडिग को जनपद विभूति अवार्ड 


शाहजहांपुर फेस्टिवल - २०१० का पुरूस्कार वितरण के साथ समापन 




साहित्य के छेत्र के ओमप्रकाश " अडिग" को जनपद 


विभूति - २०१० से अलिंक्रित किया गया


शायद  अब ठण्ड पडे


पेड़ों ने दाल दिए  फूल,
पात के दुकूल,
शायद अब ठण्ड पडे!!
साफ़ लगा होने,
है नीला आकाश,
पर्त लगी माटी की,
सागर के पास!!
बैठ रही नीचे  है धूल!
शायद अब ठण्ड पडे!!
आया है श्वेत खगो का ,
पहला झुण्ड,
संध्या के माथे पर,
चाँद का त्रिपुंड,
तीखे कुछ और हुए शूल,
शायद अब ठण्ड पडे!!
कौन सके संख्याएँ ,
तारों की गिन !
छोटे आरम्भ हुए-
होने हैं दिन !!
दोहराने प्यार लगा  भूल,
शायद अब ठण्ड पडे !!





शनिवार, 25 दिसंबर 2010

थोड़ी देर और बैठो तुम



थोड़ी देर और बैठो तुम 
मेरे जीवन की आशा बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !
सब आते जाते रहते हैं ,
भव नदिया में सब बहते हैं,
जीवन में अपनी पीड़ा को-
सब रोते हैं,सब कहते हैं!
मेरे गीतों की भाषा बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !
इतनी भीड़ कहाँ होती है ,
अपना दोष नहीं धोती है,
चलते फिरतों की आंखें भी-
नम होती हैं औ रोटी हैं !!
मेरी प्यासी अभिलाषा बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !
होता कौन यहाँ अपना है ,
अपनापन केवल सपना है ,
नींद नहीं जाने क्यों आती?
किस आशा में फिर जगना है?
मेरे प्राणों  की श्वांसा  बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !!   


                 ओमप्रकाश  ' अडिग'               { संकुल}


    

तुम ज़रूर आओगे

तुम ज़रूर आओगे 


फूलों के चहरे
शबनम ने धोये हैं 
दूब खिलखिला कर  हंस रही है 
चिड्या
चहक रही है पेड़ों की शाखाओं पर 
नीम के पेड़ पर बैठा कौवा 
मेहमान आयेंगे बता रहा है
सुनहरी दिशाएँ मुस्करा  रही हैं
हवा सरसराती हुई 
अपना दुपट्टा लहराती है
मुझे विश्वास है 
आज तुम ज़रूर आओगे 
नई सुबह बनकर
सुखद  समाचार के साथ संभवत:


{ आक्रोश से  लेखक  अचल लछमण विशवास }

आक्रोश

आक्रोश 
{प्रतिनिध  कविताएँ }
अचल लक्छ्मन  विशवास


मांडवी प्रकाशन  , गाज़ियाबाद 


मूल्य : १५०/-


इस्बं-८१-८२१२-०८८-८ 

संकुल

संकुल 


ओमप्रकाश "अडिग'


विकास  प्रकाशन   शाहजहांपुर [ उ .प्र.]


मूल्य  १००/-


इस्बं : ८१-०४५५५-९-६



सोमवार, 6 दिसंबर 2010

श्री गाँधी पुस्तकालय

श्री   गाँधी पुस्तकालय , चौक  में ०४ .१२.२०१०  की साँय ०६ बजे कवी सम्मलेन अवम मुशाइरा  का गंगा-जमुनी कार्यक्रम सम्पन्न हुआ  कौमी एकता पखवाडे के सन्दर्भ में हुए इस  सुरिचिपूर्ण  कार्यक्रम में  वरिष्ट शायर श्री खालिद अल्वी ने अध्य्छ्ता  करते हुए श्रोताओं को सोचने  को मजबूर करते हुए कहा.




" गुरूरो  किब्र  वालों को कोई  भी  नाम मत देना ,
सुना है नींद में चलने की बीमारी भी होती है. "

इस अवसर पर उस्ताद शायर साग़र वारसी  ने तरन्नुम के साथ गुनगुनाया :


"अच्छी फसलें हो रही हैं फिर भी खुशहाली नहीं ,
एक दहकाँ कह रहा था ,खैरो-बरकत उड़  गई . "


कौमी एकता पर सटीक समाधान प्रस्तुत करते गाँधी पुस्तकालय  के सचिव , नवगीत के स्थापित  हस्ताछर  अजय गुप्त ने अपने चिरपरिचित  शैली  में कहा 

"खुशनुमा सुहाना मौसम है , हो चुकी तपिश कुछ तो कम है ,
बीते मौसम की बदअमनी,हम भी भूलें तुम भी भूलो .

वरिष्ठ गीतकार श्री बृजेश मिश्र  ने अपनी विशिष्ट शैली में प्रेम गीत गुनगुनाते हुए वाह वाही  बटोरी.

" साथी अभी मौन मत तोड़ो थोडा भ्रम  बना रहने दो ,
मालूम नहीं सुबह  कैसी हो ,ये तम अभी घना रहने दो. "


अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त प्रसिद्ध शाएर  श्री अख्तर शाह्जाहंपुरी ने ये शेर कहा.
"अजब एक भीड़ सी है मेरे अदंर,
में तनहा हो के भी  तनहा नहीं हूँ,
में तरो-ताज़ा  दिखाई दूंगा "अख्तर"
किसी बीमार का चेहरा नहीं हूँ. "


स्थापित कविवर  डॉक्टर त्रिपाठी ने गीत की परिभाषा  करते हुए प्रशंसानिये प्रेम गीत पढ़ा 
"नहीं आवश्यक  की कुछ बोलें ,भावनाएँ जब सघन हो लें ,
करैं कितने ही बहाने पर ,नयन मन के भेद सब खोलें ,
प्राण का संगीत समझो ,मौन को ही गीत समझो . "

गोष्ठी कप गति प्रदान करते हुए  श्रोताओं की करतल ध्वनि  के मध्य गुनगुनाते  महबूब शाहजहांपुरी ने  कहा 

"गलत में था न ,हमसाया गलत था ,
किसी ने उसको समझाया गलत था ."

प्रसिद्ध शायर डा. ममनून ने अपनी बात कुछ इस तरह से कही ,श्रोता उनके तरन्नुम पर झूम उठे
"शोर कैसा है आज बस्ती में , क्या कोई दरमियान से उठता है ."
जब भी सहरा की सिम्त बढ़ता हूँ,एक बगूला वहाँ से उठता है "

मध्य रात्री तक चली काव्य गोष्टी में रसग्य श्रोताओं की उपस्तिथ में  सर्वश्री  ख्याल्गो लल्लन बाबू ,असगर यासिर , दीपक कंदर्प  ज्ञानेंद्र मोहन ज्ञान ,फहीम बिस्मिल , उमेश चन्द्र सिंह  ने काव्य  पाठ किया . गोष्ठी का सफल संचालन  व्यंगकार श्री अरविन्द मिश्र ने किया . आभार ज्ञापन पुस्तकालय के  संरछक  भू.पु.जोइंट कोमिशनोर श्री विजय कुमार ने किया 



" अपना घर है यहाँ मत डरो, जैसा जी चाहे वैसा करो ".......लल्लन बाबू

"खुदा जाने होंगे ख़त्म कब  लम्हे सफ़र वाले ,
बड़ी शिद्दत से याद आते हैं  मुझको अपने घर वाले."    .......असगर यासिर.


नई ज़मीन नए आसमान वाले हैं,

हमारे ख्वाब बहुत आनबान वाले हैं ,
हमारे खून में है  शामिल महक वफाओं की ,
की हम शहीदों के ही खानदान वाले हैं "................फहीम बिस्मिल

शनिवार, 20 नवंबर 2010

अरविन्द मिश्रा

घोंसला

तिनके
दरख्तों के सूखे पत्ते
धागे,फूस,बाल,
और न जाने क्या-क्या,
चुन-चुन कर
मैं
अब घोंसला नहीं बनाऊंगा .
जान लिया मैं ने ,
लोग बनाते हैं घोंसले
अपनी सन्तति के लिए ,
जिनमें अधिकाँश का चरित्र
उस बन्दर की तरह होता है
जो तोड़ देता है
घोंसला,
सीख देने पर

......................................................अरविन्द मिश्रा

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

AJAY GUPTA

मन होता

पता नहीं क्यों हम नितांत रह गए अकेले,
मन होता है हमको भी खो देते मेले .
हमको आज नहीं ,कल दिखता
या कल दिखता .
बहुत थके हम ढोते-ढोते
अंतर्मुखता .
योवन ने कब ली अंगडाई जान न पाया ,
याद नहीं कब बचपन में गुब्बारे खेले .
कठिन काम है
ज़िम्मेदारी का शव ढोना
सरल नहीं है
एक व्यवस्था का बुत होना .
चाहा पुरवा या पछुवा के साथ उडूं मैं
किन्तु फ्रेम मैं कास जाने के दंशन झेले

रविवार, 14 नवंबर 2010

AJAY GUPTA

समाधान  खोजें


साथ-साथ उड़ सकें जहां ,
वोह आसमान खोजें .
सब मिलकर रह सकें जहां ,
ऐसा मकान खोजें.

मौसम के आतंकवाद से ,
सहमी किरन परी.
भावुकता की गौरय्या पर ,
जमकर बर्फ गिरी .
शवांस सहज चल सके  बंधू 
वोह तापमान खोजें .


गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

pratitha arvind mishra

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AJAY GUPTA

अनचाहे ही


इस्पात नहीं ,हम हाड-मॉस के पुतले ,
कैसे अटूट रहने का दंभ करें.
अपने क़द से क़द दरवाजे का,
छोटा  हमें दिखा .
झुक कर आओ स्पष्ट अछरों ने
आदेश  लिखा.

तेरी बस्ती में एक ज़िन्दगी जीने के खातिर ,
हम क़दम क़दम पर अनचाहे ही कितनी बार मरे.

हम उनपर फिसले जो छिलके
अक्सर तुम ने फेंके.
यों सहज नहीं था सरेआम जो
हम घुटने टेकें .

जब मात्र सदाशयता  का  ओढा खोल दुराशा ने ,
आशीष -स्नेह  के वचनों में भी घुले मिले  फिकरे.

कट चुकी पतंगों या
अपदस्थ नवाबों जैसे हैं.
कुछ मजबूरी है दीमक लगी
किताबों जैसे हैं .

अब ट्रेल नहीं हो चुके ताश के तरेपंवे  पत्ते ,
किस तरह कहो ,किस ढंग से  , जय यात्रा प्रारंभ करें.

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

अजय गुप्ता

कांटे हुए  एलाट


द्वारा

अजय गुप्ता

प्रकाशक

श्री गाँधी पुस्तकालय , शाहजहांपुर  उत्तर प्रदेश

AJAY GUPTA

जीवित अभी है आग

शीत में काँपता-ठिठुरता  दिन ,
सूर्य ढ़ोय जा  रहा  निरुपाय .

शीत ,इतनी शीत है उस पर,
एक मुठी भी नहीं भिछ्ती ,
कसमसाता सूर्य का अंतर ,
किन्तु, प्रत्यंचा  नहीं खिंचती.

क्यों,अंगारों की कगारों पर ,
उतर आया राख का समुदाय .

क़हक़हे जी भर लगाते हैं ,
मोम की मीनार वाले लोग.
एक दीपक भी जला उसपर ,
तुरत बिठलाया गया  आयोग .

क्यों न जाने लोग गीता में,
खोजते हैं आज पीटक निकाय .

लोग कहते हैं किताबों में ,
हैं अभी भी आदमी जीवित .
ह्रदय में जीवित अभी है आग,
और आँखों में में नमी जीवित,

ह्रदय  का लावा दिशाओं में , भरे ,
कुछ तो करो शीघ्र  उपाय .

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

OM PRAKASH 'ADIG'

शताब्दी  के  पुत्रों  !   सुनो  !


मुझ से पूर्व की पीढ़ी ने , बबूल के पेड़ बोये थे ,
और अब ,जबकि हम जन्म चुके हैं ,
उनपर  कांटे  आ रहे हैं ,
ऐसा मुझे मालूम है ,की पुरानी कहावतें गलत हो रही हैं ,
अब बोता कोई है ,काटकर ढोता कोई है .
पूरी  शताब्दी ,जिसमें मैं ने जन्म लिया ,
बबूल के काँटों से छलनी है
रक्त  से लाल है ,
कई महायुधों और  युधों  के बीच ,
जब मुझे अवकाश मिला .
मैं ने सोचा :

मुझे क्यों जन्माया गया ?
बबूल का जंगल क्यों उगाया  गया ?
उत्तर दे भी तो कौन  ?
सभी  मेरे समवयस्क  हैं .
इसी शताब्दी के  हैं .
काँटों से  बिंधे हैं .
अत :  इस शताब्दी के पुत्रों .
जब तुम्हें युद्ध से समय मिले
और दर्द कुछ मालूम हो ,
तो बबूल के जंगल साफ़  करना ,
और वहाँ आम के  वृछ  लगाना.

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

DAMODAR SWAROOP VIDROHI

केवल  किसान रैली करना पर्याप्त नहीं ,
अपमान पसीने का रोको तो हम जानें ,
श्रम के हाथों ने पाल पोस कर बड़ा किया ,
वोह ईख न सुखी खेतों मैं तो हम जानें .

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

DAMODAR SWAROOP VIDROHI

किसान की कन्या

वर्षा जाड़ा और जेठ की कड़ी तपन मैं ,
भीगी-ठिठुरी-सूखी जो रहती मन मारे ,
अरे कौन जो खेतों की पतली मेड़ों पर ,
पगली सी घूमा करती है अपने केश उघारे ?????

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

KRISHNAADHAAR MISHRA

अभी यादों के हैं मधुवन ,
अभी वादों के साए हैं.
अभी ही तो मिलन के छंद ,
मैं ने गुनगुनाये हैं .

अभी कैसे विरह के दर्द वाले गीत गाऊं मैं ,
अभी कैसे निराशा से भरे आंसू बहाऊं मैं .

....................क्रिश्नाधार मिस्र

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

अरविन्द मिश्र

कला ---- अनुभूति से ,
अभिव्यक्ति  का  सफ़र है .
होगा  हमें क्या ?
अंतर केवल इतना है कि
मिटटी नदी मैं मिलती  है  और
मैं कहता हूँ  कि
नदी मिटटी मैं मिलती है .
होगा
तुम्हें क्या ?


न अनुभूति कि कोई अभिव्यक्ति हो ,
न अभिव्यक्ति  कोई अनुभूति ले सके .
हो गा हमें तुम्हें क्या ?


                         

सोमवार, 27 सितंबर 2010

फर्जी नेताओं के नाम



मैं जगा जगा कर हार गया हूँ नेताओं ,
अब कौन नया स्वर जाग्रति का देना हो गा ?
अब तुम्हें जगाने के खातिर शायद मुझको ,
दुनिया मैं फिर से नया जन्म लेना हो गा .

हम कवी -चरण चेतना दूत हैं वाणी के,
जिनके स्वर ने दी है पत्थर को बोली .
पर हार गए बीसवीं सदी मैं हम आकर ,
जो दे न सके इस मोटे खद्दर को बोली.

भारत का आँगन है लपटों से घिरा हुआ ,
पर तुम्हें आंच का रत्ती भर अहसास नहीं ,
अपने गौरव-इतिहास और छमताओं पर,
लगता है तुमको तनिक रहा विश्वास नहीं




   DAMODAR  SWAROOP VIDROHI

बुधवार, 22 सितंबर 2010

होल्डिंग




पहले पहले मैं ने चहरे देखे ,
फिर उन्हें पढ़ा ,
फिर उन्हें समझा ,
फिर उनके बारे मैं जाना ,
या तो श्रधा की ,
या कुछ नहीं
सबकी आप के बारे मैं
येही तो सोच है.
सब सोच रहे हैं,
की ज़िन्दगी
एक बाधा -दौड़ है ,

आप गिरे ,
चलो लगा ---
एक खम्बा और गिरा ,
बाधा-दौड़ का .
उम्र बीतती है ,
खम्बे गिरते हैं
कुछ खम्बे ,
फिर कोई उठाकर
दुबारा सड़क पर लगा दे गा .
दिशा-निर्देश के होल्डिंग्स की तरह ,
बगैर ये जाने की आप
कब , कहाँ और क्यों
कैसे-कैसे गिरे .
                          ARVIND MISHRA  

रविवार, 12 सितंबर 2010

क्रिशनाधार मिस्र.

गंध गूँज
सुधियों के सतरंगी इन्द्रधनुष ,
गीतों के बहुरंगी सप्त -कलश ।

मन के गगन में बनाए,
उर के सदन में सजाय तुमने ।

विस्मरति ने छीने ये रंग कई बार ,
मौसम ने किये तीव्र व्यंग कई बार ,
बनकर तब ज्योत्स्ना की रूप किरण ,
धर कर नव किसलय से अरुण चरण ।

भावों के द्वार जगमगाए ,
रागों के गुलमोहर उगाये तुमने ।

हर दिवस बसंत ,हर निष् सुगंध्हार ,
दोनों मिल करैं पुष्प के प्रबल प्रहार ,
दिवसों को देंबासंती चितवन ,,
रातों को गंधों के नंदन वन ।

नींदों के द्रव्य सब चुराय ,
लोरी के गीत गुन्ग्ने तुमने।


..............................क्रिशनाधार मिस्र.

DAMODAR SWAROOP VIDROHI

मैं कैसे क़दम उठाऊं  , संकेत ज़रा सा दे दो.
मैं चलूँ तुम्हारे पीछे ,कुछ भेद ज़रा सा दे दो .
थक गया अभी तक चलकर ,हैं चरण हमारे हारे .
पहुचना चाहते अब हैं ,अपने प्रियतम के द्वारे .

                              " कसक"

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

AKHTAR SHAHJAHANPURI


मुझे जिंदगी का पता दे गया ,वो हाथों मैं बुझता दिया दे गया .

कोई अक्स जिसमें उभरता न था ,वो उस आइने को जिला दे गया.

मरी खाक तो  इतनी नाम भी न थी ,मगर वो तो पैकर नया दे गया

परिंदा फिजा मैं जो गुम हो गया ,मेरी फ़िक्र को रास्ता दे गया .

मैं अब खून का किस पे दावा करूँ ,की जब वो मुझे खून-बहा दे गया .

ज़मीं पर बुलंदी से आना तेरा ,तेरी अजमतों  का पता दे गया.

मेरे दिल पे "अख्तर''न दस्तक हुई,सदा देने वाला सदा दे गया.

सोमवार, 30 अगस्त 2010

शहीद  भगत सिंह  की  चुनी हुई  कृतियाँ 




सम्पादक     शिव  वर्मा 


  प्रथम संस्करण  सितम्बर  ,१९८७

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शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

देवी सुभद्रा ............दामोदर स्वरुप विद्रोही

देवी सुभद्रा चली गईं तुम जीवन बना कहानी 

उधर पूज्य बापू ने बदली अपनी भौतिक काया,
तुम भी उनके पीछे-पीछे दौड़ी  जैसे  छाया ,
जीवन भर तुम रहीं सदा गाँधी-दर्शन की प्यासी ,
उनके पीछे गईं  भक्ति के साथ-साथ  श्रधा सी .

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

युग पुरुष गाँधी ....दामोदर स्वरुप विद्रोही

युग  पुरुष गाँधी   ....दामोदर स्वरुप विद्रोही    



गुलामी में घुटन की बढ़ गई जब हर तरफ आंधी ,
उबलती क्रांति भी जिसने समय के साथ बाँधी  ,
अकेला था मगर परछइयां उसकी हजारों थीं ,
उसी का नाम मोहन था वही था युग पुरुष गाँधी.

तुम्हारी चेतना ने थे चरण चूमे जवानी में ,
नया अध्याय जोड़ा क्रांति की नूतन कहानी में ,
अहिंसा और चरखा बन गया सोपान आज़ादी ,
असंभव हो गया संभव लगा दी आग पानी में.

गाँधी शब्द दर्शन का नया अध्याय बन बैठा ,
मगर कुछ स्वार्थी मन का नया व्यवसाय बन बैठा ,
गाँधी विशव के बंधुत्व की अपनी कसौटी है ,
बिना अवतार ले , अवतार का पर्याय बन बैठा.

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

DAMODAR SWAROOP VIDROHI

बड़े-बड़े महलों में बापू  अब तेरी तस्वीर है ,
झोपड़ियों में किन्तु रो रही भारत की तकदीर है.

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

ATEET-ANSH BY KRISHNAADHAAR MISHRA

आज   फिर   उस  जैसा ,
हो गया है पावस का ये दिन ,
धरती के भीगे अंगों से उठकर ,
खिड़की के रास्ते ,
आने लगी है
यौवन  क़ी सुगंध १


जीवित हो उठे हैं 
 मेरे अन्दर वे पल 
जब मेरी शिराओं में ,
झनझनाकर बज उठती थी 
 सुन्दरता क़ी फुहरिल खिलखिलाहट 
चरों और बस गई थी 
चुपचाप अनकहे  रिश्तों क़ी एक बस्ती
मेरी प्रणय लीला के दर्शक 
कुटुम्बी बन गए थे 
जुड़ गया था उन सभी से
खून से अधिक एक गाढ़ा रिश्ता

बुधवार, 11 अगस्त 2010

JHOPDI BY ARVIND MISHRA


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सोमवार, 2 अगस्त 2010

ARVIND MISHRA

प्रतीछा

सुना है तुम आज भी ,
हमारी प्रतीछा मैं हो ,
मत आना हमारे सामने ,
जो तस्वीर हमने अपनी ,
पुतलिओं के शीशे के मध्य ,
पलकों के
लकदीलय फरमे मैं जड़ी है ,
निश्चीत ही है
अब तुम वैसी नहीं हो गी
सत्यता है की तुम में आया  परिवर्तन ,
अब तुम्हें खुद मालूम हो गा ,
फिर भी तुम्हारा ये चाहना ,
की अब ,
पुनः मेरी आँखों में
प्रतिबिम्ब तो वही बना रहे ,
और चाहना ,
वर्तमान की हो ,
हो न सके गा ,
अच्छा है की शेष
 हमारा  हो  या तुम्हरा
प्रतीछा में कटे.

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

ARVIND MISHRA

जाने , अजाने , पहचाने ,
भीड़ के चहरे ,
कलम और कूंची से ,
बने चहरे ,
हमेशा से ,
ढकेलते रहे हैं ,
और रहेंगे ,
शून्य में.

नियति है ,
यह सारे चहरे होंगे ,
नकाब चढे .
में नहीं चाहता 
फिर भी
चढ़ा लेता हूँ ,
नकाब
अपने खोकले  चहरे पर ,
जिसमें 
द्रष्टि  के लिए
छेद  नहीं है.

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

DAMODAR SWAROOP VIDROHI

कुछ लोग जी रहे हैं यूँ आचरण बदल कर  ,
शैतान पुज रहे  हैं  ज्यों  आवरण बदल कर .

शनिवार, 17 जुलाई 2010

DAMODAR SWAROOP VIDROHI

तुमने भरदी  एक भिकारी के हाथों कि खाली झोली  ,
व्यंग से आहात कानों को दे दी  तुमने मीठी बोली .

                *****************
तुमको क्या दे पाऊंगा में मुझको जीवन देने वाले ,
तपती हुई उम्र को आकर सहसा सावन देने वाले ,
तप्त रेत पर भीन जी गई ऐसा शीतल वर्षण पाया ,
निर्धन मन धनवान हो गया ऐसा दिव्य समपर्ण पाया .

              *******************
कहते हैं लोग प्रतिभा परिचय स्वयम बनेगी ,
दम ही निकल न जाये पहिचान होते-होते .  

बुधवार, 14 जुलाई 2010

ARVIND MISRA

यह भ्रम ,
भ्रम  ही बना रहे,
तो अछा है की ,
नहीं देखा है ,
उन सैकड़ों आँखों
ने हमारा नंगापन
 जो हमने ढाई आखर
 के नाम पर
 खेल बनाकर
 खुलकर खेला.
रिश्तों को स्थापित करने की हमने
 हमेशा स्वरचित परिधि बनाई ,
और अजाने  रहे   की हमने जिन कनातों से
 इसे घेरा है ,
 वे शीशे की हैं .
 हमें , अब तो भ्रम ही पालना है
  की जो आंखें
देख रही थीं
वे सभी द्र्ष्टिहीन और निस्तेज थीं
 अन्यथा हम कैसे मान लेंगे ,
 सार्वजनिक द्रष्टि
 मैं स्वयं को
अपराधी

Hameed "KHIZR" Shahjahanpuri


खुशिओं  से कब रिश्ता है,
मुझको गम ने पाला है.

फिर एक तारा टुटा है,
क्या कुछ होने वाला है.

गैरों ने ही साथ दिया,
 अपनों ने जब लूटा है.

अब क्यों तुम अफसुर्दा हो,
जो बोया वो काटा है.

दिल के एक एक पन्ने पर ,
नाम ये कैसा लिखा है  .

 ढून्ढ "खिज़र"अब साथी  भी ,
कब से अकेला फिरता है.

रविवार, 11 जुलाई 2010

KRISHNAADHAAR MISRA

सुधि-विहंग


अनवरत याद की यह पराकाष्टा
दिन सपन ,यामिनी जागरण हो गई .

भोर आया ,जागे कल्पना के विहग
उड़ चले था जहां पर तुम्हारा शयन ,
स्वर हज़ारों बदलकर सुनाये तुम्हें 

जाग जायें की जिससे उनीदे नयन .

तुम जगे भोर की अरुणिमा जग गई 
यह पवन चन्दनी गीत गाने लगी 
भोर की अजनबी सी किरन जो चुभी 
ओस बन वेदना मुस्कराने लगी.

दर्द  ने कुछ अचानक छुआ इस तरह
रागिनी प्राण का आभरण   हो गई.

क्यों पपीहा रहा जागता रात भर ,
क्यों पिकी आम्रवन को गुंजाती रही ,
क्यों भ्रमर पागलों सा भटकता रहा 
क्यों किरन उपवनों को सजाती रही ,

क्यों लहर पूछती सागरों का पता ,
धार को ले चली कौन सी कामना ,
एक परिचय तुम्हारा मुझे कह गया ,
कर रहे ये सभी प्यार की साधना .

एक दीवानगी जो स्वयम प्रशन थी 
आज वोह व्यक्तिगत आचरण हो गई.

ARVIND MISRA

आँसू


बहते हुए 
आंसुओं की 
गालों पर
बनती लकीर सूखने दो ,
आँख का सारा खारापन 
अपने गालों पर जमने दो .
जानते हो ?
समुद्र का खारा पानी 
उन मछलिओन  के 
आंसुओं का ही तो है ,
जिन्हें बड़ी मछली निगल लती है.
और वो , जब जब नमक बनकर 
तुम्हारे पेट से आँख तक 
और आँख से गालों पर 
लकीर छोड़ता है , तो 
न जाने क्यों  मुझे लगता है .....
पूरा का पूरा समुद्र 
तुम्हरी आँखों मे है ,
जिसमे बहुत कुछ डूबा हुआ है ,
परन्तु उस डूबे हुए से ,
तुम्हारा परिचय  नहीं है.

शनिवार, 10 जुलाई 2010

AKHTAR SHAHJAHANPURI



जसे फ़िक्र हो कुछ नया कर चले,
रिवायत से दामन बचाकर चले.

हमारे लिए क्या किसी ने किया ?
किसी के  लिए हम भी क्या कर चले .

उसी के क़दम मंजिलें चूम लें,
जो रास्ते के पत्थर हटा कर चले

क़यामत की है तीरगी उसतरफ ,
चले जो भी शमाएँ जलाकर चले .

वही सुर्खरू होगा इस  जंग मैं ,
जो नेजे पर सर को सजाकर चले.

खुले कोई दरवाज़ा या बंद हो ,
सदा करने वाले सदा कर चले.

ये बज्मे-तखयुल है "अख्तर' यहाँ ,
कहो फ़िक्र से सर उठाकर चले.

ARVIND MISRA

विजय नाद


कंपकपाते  गालों से 
होठों में गोलाई लाकर
सम्पूर्ण श्वासों  का
बल  लगाकर
तुमने
जो विजयनाद किया

वोह
वैसा ही खोकला था
जैसे
तुम्हारे होंठों से लगा 
शंख .
यह तुम 
अछी तरह जानते हो
और जानता है 
शंख भी .

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

DAMODAR SWAROOP VIDROHI



मुझको न जला पाई  ज्वाला डूबा न कभी में पानी में ,
अंगारों से श्रृंगार किया  फूलों से खिकी जवानी  में .  


में कहता हूँ वोह मरा राष्ट्र  ,जिसका उज्जवल इतिहास नहीं ,
वोह जीना क्या जाने जिसको मर-मिटने का  अभ्यास नहीं .


किन्तु मैंने कुछ न की परवाह इसकी ,
शुद्ध कवि ने धर्म का पालन किया .
रौशनी को रौशनी , तम को कहा तम ,
चेतना की ज्योति का वंदन किया है .



जब त्याग्मई साधना  जवानी में पलती ,
तब कहीं  विवेकानंद  एक  बन  पाता  है.


KRISHNAADHAAR MISRA

सांध्य -संकेत


बूढी इमारतों की  बेतरतीब ,
पंक्तियों मैं लगे ,
कंगूरों ने ,
सांझ को अपने अनरूप ,
काट , झांट दिया है.
कमरे की खिड़की  से झांकता आकाश ,
उस पार से कूद कर आने के
 प्रयत्न में
काफी छत -विछत हो गया है ,
धीरे-धीरे
कोने में छिपे
अंधेरे नें
हम दोनों के बीच ,
मेज़ भर दूरी को भरना आरम्भ
कर दिया है.
इसी दूरी में से गुज़रते हम देख चुके हैं .
पल , घंटे , और ...........................!
इस पारदर्शी समय पर ,
लिखे जा चुके हैं ,कितने ही ,
मौन के संवाद .
अचानक मौन भंग करते हुए
तुमने कहा
" अँधेरा हो गया है , बत्ती जला दें  "
बत्ती जलाकर हाथ जोड़
नमन मुद्रा में जब तुमने सर झुकाया ,
मुझे लगा -
सारा उजाला तुम्हारी  मांग में ,
भरकर सिंदूरी हो गया

***********************************

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

AKHTAR SHAHJAHANPURI

समंदर हूँ मुझे रुसवा न करना ,
मेरी वुसअत का तुम सौदा न करना.

येही पाकीज़गी की है निशानी ,
तुम इस  पोशाक  को  मैला  न करना

मुझे तन्हाइयां रास  आ गई हैं ,
मेरे बारे मैं अब सोचा  न करना .

उजाला हर वर्क पर लिख रहा हूँ ,
तुम इनको भूलकर काला न करना .

मेरे अहबाब ने सीखा है किस्से ,
ज़रा सी बात को अफसाना करना .

दरख्तों से कोई कहता है "अख्तर"
मुसाफिर हूँ मेरा पीछा न करना

बुधवार, 7 जुलाई 2010

KRISHNAADHAAR MISRA

मर्त्तिका  ही  तो


जन्मों से मिलन हमारा है फिर भी
जाने क्यों मेरी प्यास अधूरी .

लगता अब तक  मिलने की सारे क्रम
थे  केवल  बीते युगों के भ्रम
आओ अब तो हम कुछ इस तरह मिलें
हों पराभूत सम सीमाएँ निर्मम.

मुझको छूकर भी तुम अनछुई रहीं,
कौन सी नियति यह मजबूरी है

सारे नकारते  हैं यह गठ्बंदन
किस किस से दूर करें अपनी अनबन  
बोलो तुम को में कैसे देख सकूं
जब तक शरीर के हम पर  अवगुंठन

में निकट तुम्हारे कितने भी आऊं
लगता   प्रकाश    वर्षों कि दूरी है.

AKHTAR SHAHJAHANPURI

धूप का  सायबान   


यह किस जुर्म की अब सज़ा दी गई ,
की शाखे -नशेमन जला दी गई.

जहां के मकीं हद से आगे बढे ,
वोह बस्ती ही एक दिन मिटा दी गई.

जो तस्वीर आँखों मैं रखने को थी
वोह बाज़ार मैं क्यों सजा दी गई.

मसीहाई का जिस ने दावा किया ,
तो ज़ख्मों की उसको क़बा दी गई.

अज़ल से जो वजहे-ताल्लुक रही ,
वही बात "अख्तर" भुला दी गई.





मंगलवार, 6 जुलाई 2010

GROUND REALTIES REALISATION BY A POET

कुछ   चुनी  हुई पंक्तियाँ   




एक सुमन कि चाह में  बोलो भला क्यों ,
एक पूरी  वाटिका वीरान कर  दूं 


................................क्यों  विरह  के दाह को सहता रहूँ  जब ,
                                स्रष्टि  सारी  कर  रही  परवाह मेरी 


एक मिलन  की खातिर तुमने देखो तो , 
कैसी कैसी  चीज़ों   का बलिदान लिया 


..........................................एक   जीवन   क़र्ज़  हैं  जिस पर हज़ारों  
                                           किस तरह केवल  तुम्हें  उपहार दूं


 ..................................................................क्रिशनाधार   मिश्र

पंथाभिसार

तुम बिखर जाना हमारी राह मैं बन चांदनी,
तो सुमन खिल जाऐगा
फिर खुद बहार जायेगी

दीप लेकर साथ आओ तुम
नहीं ये चाहता मैं ,
सिर्फ राहों की दिशा का ज्ञान दे देना ,
राह के संकट बटाओ तुम,
नहीं ये चाहता मैं,
सिर्फ चलने का मुझे वरदान दे देना
राह की ठोकर करे अपमान ,
जब मेरे पगों का
मैं कहता तुम उन्हें सम्मान दे देना ,
जब निराशा के अंधेरे
घिर कर मुझको सताएँ ,
याद आकर बस किरन-मुस्कान दे देना

तुम निखर आना हमारी आह में वन रागिनी ,
तो तपन मिट जायेगी ,
फिर खुद फुहार जायेगी

..............................................क्रिशनाधार मिस्र