शनिवार, 10 जुलाई 2010

AKHTAR SHAHJAHANPURI



जसे फ़िक्र हो कुछ नया कर चले,
रिवायत से दामन बचाकर चले.

हमारे लिए क्या किसी ने किया ?
किसी के  लिए हम भी क्या कर चले .

उसी के क़दम मंजिलें चूम लें,
जो रास्ते के पत्थर हटा कर चले

क़यामत की है तीरगी उसतरफ ,
चले जो भी शमाएँ जलाकर चले .

वही सुर्खरू होगा इस  जंग मैं ,
जो नेजे पर सर को सजाकर चले.

खुले कोई दरवाज़ा या बंद हो ,
सदा करने वाले सदा कर चले.

ये बज्मे-तखयुल है "अख्तर' यहाँ ,
कहो फ़िक्र से सर उठाकर चले.

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