रविवार, 11 जुलाई 2010

KRISHNAADHAAR MISRA

सुधि-विहंग


अनवरत याद की यह पराकाष्टा
दिन सपन ,यामिनी जागरण हो गई .

भोर आया ,जागे कल्पना के विहग
उड़ चले था जहां पर तुम्हारा शयन ,
स्वर हज़ारों बदलकर सुनाये तुम्हें 

जाग जायें की जिससे उनीदे नयन .

तुम जगे भोर की अरुणिमा जग गई 
यह पवन चन्दनी गीत गाने लगी 
भोर की अजनबी सी किरन जो चुभी 
ओस बन वेदना मुस्कराने लगी.

दर्द  ने कुछ अचानक छुआ इस तरह
रागिनी प्राण का आभरण   हो गई.

क्यों पपीहा रहा जागता रात भर ,
क्यों पिकी आम्रवन को गुंजाती रही ,
क्यों भ्रमर पागलों सा भटकता रहा 
क्यों किरन उपवनों को सजाती रही ,

क्यों लहर पूछती सागरों का पता ,
धार को ले चली कौन सी कामना ,
एक परिचय तुम्हारा मुझे कह गया ,
कर रहे ये सभी प्यार की साधना .

एक दीवानगी जो स्वयम प्रशन थी 
आज वोह व्यक्तिगत आचरण हो गई.

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