बुधवार, 14 जुलाई 2010

ARVIND MISRA

यह भ्रम ,
भ्रम  ही बना रहे,
तो अछा है की ,
नहीं देखा है ,
उन सैकड़ों आँखों
ने हमारा नंगापन
 जो हमने ढाई आखर
 के नाम पर
 खेल बनाकर
 खुलकर खेला.
रिश्तों को स्थापित करने की हमने
 हमेशा स्वरचित परिधि बनाई ,
और अजाने  रहे   की हमने जिन कनातों से
 इसे घेरा है ,
 वे शीशे की हैं .
 हमें , अब तो भ्रम ही पालना है
  की जो आंखें
देख रही थीं
वे सभी द्र्ष्टिहीन और निस्तेज थीं
 अन्यथा हम कैसे मान लेंगे ,
 सार्वजनिक द्रष्टि
 मैं स्वयं को
अपराधी

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