यह भ्रम ,
भ्रम ही बना रहे,
तो अछा है की ,
नहीं देखा है ,
उन सैकड़ों आँखों
ने हमारा नंगापन
जो हमने ढाई आखर
के नाम पर
खेल बनाकर
खुलकर खेला.
रिश्तों को स्थापित करने की हमने
हमेशा स्वरचित परिधि बनाई ,
और अजाने रहे की हमने जिन कनातों से
इसे घेरा है ,
वे शीशे की हैं .
हमें , अब तो भ्रम ही पालना है
की जो आंखें
देख रही थीं
वे सभी द्र्ष्टिहीन और निस्तेज थीं
अन्यथा हम कैसे मान लेंगे ,
सार्वजनिक द्रष्टि
मैं स्वयं को
अपराधी
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