मंगलवार, 27 जुलाई 2010

ARVIND MISHRA

जाने , अजाने , पहचाने ,
भीड़ के चहरे ,
कलम और कूंची से ,
बने चहरे ,
हमेशा से ,
ढकेलते रहे हैं ,
और रहेंगे ,
शून्य में.

नियति है ,
यह सारे चहरे होंगे ,
नकाब चढे .
में नहीं चाहता 
फिर भी
चढ़ा लेता हूँ ,
नकाब
अपने खोकले  चहरे पर ,
जिसमें 
द्रष्टि  के लिए
छेद  नहीं है.

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

DAMODAR SWAROOP VIDROHI

कुछ लोग जी रहे हैं यूँ आचरण बदल कर  ,
शैतान पुज रहे  हैं  ज्यों  आवरण बदल कर .

शनिवार, 17 जुलाई 2010

DAMODAR SWAROOP VIDROHI

तुमने भरदी  एक भिकारी के हाथों कि खाली झोली  ,
व्यंग से आहात कानों को दे दी  तुमने मीठी बोली .

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तुमको क्या दे पाऊंगा में मुझको जीवन देने वाले ,
तपती हुई उम्र को आकर सहसा सावन देने वाले ,
तप्त रेत पर भीन जी गई ऐसा शीतल वर्षण पाया ,
निर्धन मन धनवान हो गया ऐसा दिव्य समपर्ण पाया .

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कहते हैं लोग प्रतिभा परिचय स्वयम बनेगी ,
दम ही निकल न जाये पहिचान होते-होते .  

बुधवार, 14 जुलाई 2010

ARVIND MISRA

यह भ्रम ,
भ्रम  ही बना रहे,
तो अछा है की ,
नहीं देखा है ,
उन सैकड़ों आँखों
ने हमारा नंगापन
 जो हमने ढाई आखर
 के नाम पर
 खेल बनाकर
 खुलकर खेला.
रिश्तों को स्थापित करने की हमने
 हमेशा स्वरचित परिधि बनाई ,
और अजाने  रहे   की हमने जिन कनातों से
 इसे घेरा है ,
 वे शीशे की हैं .
 हमें , अब तो भ्रम ही पालना है
  की जो आंखें
देख रही थीं
वे सभी द्र्ष्टिहीन और निस्तेज थीं
 अन्यथा हम कैसे मान लेंगे ,
 सार्वजनिक द्रष्टि
 मैं स्वयं को
अपराधी

Hameed "KHIZR" Shahjahanpuri


खुशिओं  से कब रिश्ता है,
मुझको गम ने पाला है.

फिर एक तारा टुटा है,
क्या कुछ होने वाला है.

गैरों ने ही साथ दिया,
 अपनों ने जब लूटा है.

अब क्यों तुम अफसुर्दा हो,
जो बोया वो काटा है.

दिल के एक एक पन्ने पर ,
नाम ये कैसा लिखा है  .

 ढून्ढ "खिज़र"अब साथी  भी ,
कब से अकेला फिरता है.

रविवार, 11 जुलाई 2010

KRISHNAADHAAR MISRA

सुधि-विहंग


अनवरत याद की यह पराकाष्टा
दिन सपन ,यामिनी जागरण हो गई .

भोर आया ,जागे कल्पना के विहग
उड़ चले था जहां पर तुम्हारा शयन ,
स्वर हज़ारों बदलकर सुनाये तुम्हें 

जाग जायें की जिससे उनीदे नयन .

तुम जगे भोर की अरुणिमा जग गई 
यह पवन चन्दनी गीत गाने लगी 
भोर की अजनबी सी किरन जो चुभी 
ओस बन वेदना मुस्कराने लगी.

दर्द  ने कुछ अचानक छुआ इस तरह
रागिनी प्राण का आभरण   हो गई.

क्यों पपीहा रहा जागता रात भर ,
क्यों पिकी आम्रवन को गुंजाती रही ,
क्यों भ्रमर पागलों सा भटकता रहा 
क्यों किरन उपवनों को सजाती रही ,

क्यों लहर पूछती सागरों का पता ,
धार को ले चली कौन सी कामना ,
एक परिचय तुम्हारा मुझे कह गया ,
कर रहे ये सभी प्यार की साधना .

एक दीवानगी जो स्वयम प्रशन थी 
आज वोह व्यक्तिगत आचरण हो गई.

ARVIND MISRA

आँसू


बहते हुए 
आंसुओं की 
गालों पर
बनती लकीर सूखने दो ,
आँख का सारा खारापन 
अपने गालों पर जमने दो .
जानते हो ?
समुद्र का खारा पानी 
उन मछलिओन  के 
आंसुओं का ही तो है ,
जिन्हें बड़ी मछली निगल लती है.
और वो , जब जब नमक बनकर 
तुम्हारे पेट से आँख तक 
और आँख से गालों पर 
लकीर छोड़ता है , तो 
न जाने क्यों  मुझे लगता है .....
पूरा का पूरा समुद्र 
तुम्हरी आँखों मे है ,
जिसमे बहुत कुछ डूबा हुआ है ,
परन्तु उस डूबे हुए से ,
तुम्हारा परिचय  नहीं है.

शनिवार, 10 जुलाई 2010

AKHTAR SHAHJAHANPURI



जसे फ़िक्र हो कुछ नया कर चले,
रिवायत से दामन बचाकर चले.

हमारे लिए क्या किसी ने किया ?
किसी के  लिए हम भी क्या कर चले .

उसी के क़दम मंजिलें चूम लें,
जो रास्ते के पत्थर हटा कर चले

क़यामत की है तीरगी उसतरफ ,
चले जो भी शमाएँ जलाकर चले .

वही सुर्खरू होगा इस  जंग मैं ,
जो नेजे पर सर को सजाकर चले.

खुले कोई दरवाज़ा या बंद हो ,
सदा करने वाले सदा कर चले.

ये बज्मे-तखयुल है "अख्तर' यहाँ ,
कहो फ़िक्र से सर उठाकर चले.

ARVIND MISRA

विजय नाद


कंपकपाते  गालों से 
होठों में गोलाई लाकर
सम्पूर्ण श्वासों  का
बल  लगाकर
तुमने
जो विजयनाद किया

वोह
वैसा ही खोकला था
जैसे
तुम्हारे होंठों से लगा 
शंख .
यह तुम 
अछी तरह जानते हो
और जानता है 
शंख भी .

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

DAMODAR SWAROOP VIDROHI



मुझको न जला पाई  ज्वाला डूबा न कभी में पानी में ,
अंगारों से श्रृंगार किया  फूलों से खिकी जवानी  में .  


में कहता हूँ वोह मरा राष्ट्र  ,जिसका उज्जवल इतिहास नहीं ,
वोह जीना क्या जाने जिसको मर-मिटने का  अभ्यास नहीं .


किन्तु मैंने कुछ न की परवाह इसकी ,
शुद्ध कवि ने धर्म का पालन किया .
रौशनी को रौशनी , तम को कहा तम ,
चेतना की ज्योति का वंदन किया है .



जब त्याग्मई साधना  जवानी में पलती ,
तब कहीं  विवेकानंद  एक  बन  पाता  है.


KRISHNAADHAAR MISRA

सांध्य -संकेत


बूढी इमारतों की  बेतरतीब ,
पंक्तियों मैं लगे ,
कंगूरों ने ,
सांझ को अपने अनरूप ,
काट , झांट दिया है.
कमरे की खिड़की  से झांकता आकाश ,
उस पार से कूद कर आने के
 प्रयत्न में
काफी छत -विछत हो गया है ,
धीरे-धीरे
कोने में छिपे
अंधेरे नें
हम दोनों के बीच ,
मेज़ भर दूरी को भरना आरम्भ
कर दिया है.
इसी दूरी में से गुज़रते हम देख चुके हैं .
पल , घंटे , और ...........................!
इस पारदर्शी समय पर ,
लिखे जा चुके हैं ,कितने ही ,
मौन के संवाद .
अचानक मौन भंग करते हुए
तुमने कहा
" अँधेरा हो गया है , बत्ती जला दें  "
बत्ती जलाकर हाथ जोड़
नमन मुद्रा में जब तुमने सर झुकाया ,
मुझे लगा -
सारा उजाला तुम्हारी  मांग में ,
भरकर सिंदूरी हो गया

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गुरुवार, 8 जुलाई 2010

AKHTAR SHAHJAHANPURI

समंदर हूँ मुझे रुसवा न करना ,
मेरी वुसअत का तुम सौदा न करना.

येही पाकीज़गी की है निशानी ,
तुम इस  पोशाक  को  मैला  न करना

मुझे तन्हाइयां रास  आ गई हैं ,
मेरे बारे मैं अब सोचा  न करना .

उजाला हर वर्क पर लिख रहा हूँ ,
तुम इनको भूलकर काला न करना .

मेरे अहबाब ने सीखा है किस्से ,
ज़रा सी बात को अफसाना करना .

दरख्तों से कोई कहता है "अख्तर"
मुसाफिर हूँ मेरा पीछा न करना

बुधवार, 7 जुलाई 2010

KRISHNAADHAAR MISRA

मर्त्तिका  ही  तो


जन्मों से मिलन हमारा है फिर भी
जाने क्यों मेरी प्यास अधूरी .

लगता अब तक  मिलने की सारे क्रम
थे  केवल  बीते युगों के भ्रम
आओ अब तो हम कुछ इस तरह मिलें
हों पराभूत सम सीमाएँ निर्मम.

मुझको छूकर भी तुम अनछुई रहीं,
कौन सी नियति यह मजबूरी है

सारे नकारते  हैं यह गठ्बंदन
किस किस से दूर करें अपनी अनबन  
बोलो तुम को में कैसे देख सकूं
जब तक शरीर के हम पर  अवगुंठन

में निकट तुम्हारे कितने भी आऊं
लगता   प्रकाश    वर्षों कि दूरी है.

AKHTAR SHAHJAHANPURI

धूप का  सायबान   


यह किस जुर्म की अब सज़ा दी गई ,
की शाखे -नशेमन जला दी गई.

जहां के मकीं हद से आगे बढे ,
वोह बस्ती ही एक दिन मिटा दी गई.

जो तस्वीर आँखों मैं रखने को थी
वोह बाज़ार मैं क्यों सजा दी गई.

मसीहाई का जिस ने दावा किया ,
तो ज़ख्मों की उसको क़बा दी गई.

अज़ल से जो वजहे-ताल्लुक रही ,
वही बात "अख्तर" भुला दी गई.





मंगलवार, 6 जुलाई 2010

GROUND REALTIES REALISATION BY A POET

कुछ   चुनी  हुई पंक्तियाँ   




एक सुमन कि चाह में  बोलो भला क्यों ,
एक पूरी  वाटिका वीरान कर  दूं 


................................क्यों  विरह  के दाह को सहता रहूँ  जब ,
                                स्रष्टि  सारी  कर  रही  परवाह मेरी 


एक मिलन  की खातिर तुमने देखो तो , 
कैसी कैसी  चीज़ों   का बलिदान लिया 


..........................................एक   जीवन   क़र्ज़  हैं  जिस पर हज़ारों  
                                           किस तरह केवल  तुम्हें  उपहार दूं


 ..................................................................क्रिशनाधार   मिश्र

पंथाभिसार

तुम बिखर जाना हमारी राह मैं बन चांदनी,
तो सुमन खिल जाऐगा
फिर खुद बहार जायेगी

दीप लेकर साथ आओ तुम
नहीं ये चाहता मैं ,
सिर्फ राहों की दिशा का ज्ञान दे देना ,
राह के संकट बटाओ तुम,
नहीं ये चाहता मैं,
सिर्फ चलने का मुझे वरदान दे देना
राह की ठोकर करे अपमान ,
जब मेरे पगों का
मैं कहता तुम उन्हें सम्मान दे देना ,
जब निराशा के अंधेरे
घिर कर मुझको सताएँ ,
याद आकर बस किरन-मुस्कान दे देना

तुम निखर आना हमारी आह में वन रागिनी ,
तो तपन मिट जायेगी ,
फिर खुद फुहार जायेगी

..............................................क्रिशनाधार मिस्र

सोमवार, 5 जुलाई 2010

बीजपल

थके उबे तिरस्कृत पल भी ,
चुरा लाते हैं ,
तुम्हारी फेनिल हंसी ,
गंधित मुस्कान ,
और
उत्सवी पहचान ,
बहुत चुपके ।
वोह पहचान
दुबक जाती है
कहीं मेरे में
मेरे जड़ को
चेतन करने
मेरे अधिगमन को
अध्यात्म बनाने


.................क्रिशनआधार मिस्र

रविवार, 4 जुलाई 2010

गंध गूँज

सुधियों के सतरंगी इन्द्रधनुष ,
गीतों के बहुरंगी सप्त -कलश ।

मन के गगन में बनाए,
उर के सदन में सजाय तुमने ।

विस्मरति ने छीने ये रंग कई बार ,
मौसम ने किये तीव्र व्यंग कई बार ,
बनकर तब ज्योत्स्ना की रूप किरण ,
धर कर नव किसलय से अरुण चरण ।

भावों के द्वार जगमगाए ,
रागों के गुलमोहर उगाये तुमने ।

हर दिवस बसंत ,हर निष् सुगंध्हार ,
दोनों मिल करैं पुष्प के प्रबल प्रहार ,
दिवसों को देंबासंती चितवन ,,
रातों को गंधों के नंदन वन ।

नींदों के द्रव्य सब चुराय ,
लोरी के गीत गुन्ग्ने तुमने।


..............................क्रिशनाधार मिस्र.

अगर तुम आ न जाते कुसुमई मुस्कान से सजाकर
धरा पर यह बिछी सारी बहारें मूक रह जातीं .

घटा आती पहन जल बिन्दुओं की पायलें ,गाती ,
ठुमक उठतीं शिलाएँ झूम आकाशी मेर्दंगों पर ,
बिज्लिओं की हंसी से मेदिनी आकाश मिल जाते ,
हवाएँ गीत लिख जातीं नदी के सुप्त अंगों पर

......क्रिश्नाधार मिश्रा

शनिवार, 3 जुलाई 2010

AKCHAR NEEM KAY BY ARVIND MISHRA

Published in 2001 Price Rs.70.००

उस अँधेरी रात ,
गौतम पार्क के पास ,
पुलिस के गश्ती दल ने ,
तीन बोनों को ,
ग्रिफत मैं लिया ।
खाली जेबें पाकर ,
वोह दल ,
जब उन्हें थाने लाया ,
तब मुंशी भी चकराया ,
जब एक ने अपना नाम सत्य ,
दूसरे ने अहिंसा ,
तीसरे ने न्याय बताया

वाल्दिअत मैं न्याय ने
विक्रमादित्य से जहांगीर ,
अहिंसा ने ,
बुद्ध से गाँधी फकीर

और सत्य ने
हरिशच्नद आदि
की फहरिस्त लिखाईतो
मुंशी ने
क्रोध मैं तिओरी चढ़ाई
" कई बापों की औलादों "
अब भी सच बता दो
वरना
थानेदार जब आएगा
तो साड़ी हेकड़ी
धरी रह जायेगी ।
एक की लाश गंगा मैं ,
दूसरे की सरयू मैं ,
और तीसरे की
कावेरी मैं नज़र आएगी

........................
.................



ये सिन्दूरी छितिज पशचिमी , ये सोये-सोये बादल ,
रंगों के दानी बन बैठे छूकर तेरा अरुणाचल .

शाहजहांपुर जनपद के वरिष्ट एवं हमसब के मित्र कवि " क्रिशनाधार मिश्र " कि पुस्तक


" विरंदावन सारा " { काव्य संग्रह }


प्रथम संस्करण २००५