बुधवार, 7 जुलाई 2010

KRISHNAADHAAR MISRA

मर्त्तिका  ही  तो


जन्मों से मिलन हमारा है फिर भी
जाने क्यों मेरी प्यास अधूरी .

लगता अब तक  मिलने की सारे क्रम
थे  केवल  बीते युगों के भ्रम
आओ अब तो हम कुछ इस तरह मिलें
हों पराभूत सम सीमाएँ निर्मम.

मुझको छूकर भी तुम अनछुई रहीं,
कौन सी नियति यह मजबूरी है

सारे नकारते  हैं यह गठ्बंदन
किस किस से दूर करें अपनी अनबन  
बोलो तुम को में कैसे देख सकूं
जब तक शरीर के हम पर  अवगुंठन

में निकट तुम्हारे कितने भी आऊं
लगता   प्रकाश    वर्षों कि दूरी है.

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