सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

SAROJ KUMAR MISHRA

परिधि नाप कर पूरी देखी 
एक लगी तुम सबसे न्यारी 
क्या कह कर तुम्हे पुकारू 
ओ दूर देश की राजकुमारी | | 

एक नजर भर के जो देखा फागुन चढ़ गया इन आँखों मे 
मधुमास लपेटे कोई चुनर सिमट गई नंगी शाखों में 
मन बेकाबू कोशिश करता दूर गगन मे उड़ जाने की 
करता हें वो बाते अक्सर तारो से तुम्हे सजाने की 

सावन बनकर छा जाऊं में 
जो बन जाओ तुम फुलबारी 
क्या कह कर तुम्हे पुकारू 
ओ दूर देश की राजकुमारी |

छोड़ न पाँऊ हाँथ तुम्हरा बड़े जतन के बाद मिली हो 
मीलो तक फैले मरुथल में ज्यो बसंत की प्रथम कली हो 
तन मेरा था खंडहर जैसा तुमने जिसमे रंग भर दिए 
परत परत मावस रातो पर तुमने जगमग दीप धर दिए 

मन करता मधुवन वारु तुम पर
पर तुम हो मधुवन से प्यारी 
क्या कह कर तुम्हे पुकारू 
ओ दूर देश की राजकुमारी | | 

मुझको छोड़ के अब न जाना चाहे जितनी कठिनाई हो 
चाहें रचे किसी की मेहँदी या बजती शहनाई हो 
उस अम्बर से इस धरती तक तुम जिसका एक सहारा हो 
उसका जीना होगा मुश्किल जिसने तुम पर मन हारा हो 

मै तो बना तेरा चितचोर 
करो तुम कितनी पहरेदारी 
क्या कह कर तुम्हे पुकारू 
ओ दूर देश की राजकुमारी | |____सरोज मिश्र

SAROJ KUMAR MISHRA

छोड़ कर पतवार नावे चल पड़ी है किस दिशा में चाँद भी मद होश होकर डूबता जाता निशा में बंद शतदल पर किरन , की माधुरी ज्यो गीत गाये हर भ्रमर का दिल जला है आज प्रिय का ख़त मिला है व्योम वैभव रूप का सब लिख दिया है शेष चुम्बन हेतु रीता हाशिया है और कोमल पुष्प रति का, रूप की आभा बिछाये दर्प का दर्पण गला है आज प्रिय का ख़त मिला है लिख दिए बीते सपन मनुहार लिखते दूरियों में प्रीति का विस्तार लिखते फिर वही छल पाश से, आँचल बचाये एक लम्बा सिलसिला है आज प्रिय का ख़त मिला है -------------------------------------------सरोज मिश्र ----

रविवार, 13 अक्तूबर 2013

SAROJ KUMAR MISHRA

पंख यह कितना उड़े, तुम खो गये आकाश बनकर
देह से ना और खेलो , अब प्रिये उपवास बनकर
आदि से हो अंत तक, बस एक मेरा ही नियंत्रण 
आ मिलो मुझसे कोई तुम, पर्व का अवकाश बनकर 

---------------------- सरोज मिश्र-----------------------

कल एक मुक्तक लिखा था ,मन विवश कर रहा था उसमे कुछ परिवर्तन के लिए ,सो कर दिया ------और अब मित्रो के हवाले कर रहा हू 

मरना पड़ता हे रोज उसे , जो जीता हे उपकारो मे 
ऐसे गिरी नही घर की छत , हे दोष कोई दीवारों मे
प्रतिभाए सब हुई उपेछित राजनीति की मनमर्जी हे 
जुगनू राजा घोषित हो गये ,सूरज के दरबारों मे 
******************सरोज मिश्र****************


अजब तुम्हरी दुनिया देखी ,अजब लगे दस्तूर 
महफ़िल जिनके नाम सजी थी वे महफ़िल से दूर 
कतरब्योत की तरकीबो के रंग बड़े थे गहरे
कलम पड़ी हे माथा फोड़े , गले हुए मशहूर 

----------------------------सरोज मिश्र ------------------- 

SAAROJ KUMAR MISHRA

दो आँखों के मिल जाने से 
कोई मीत नही बन जाता ,
सरगम कह देने से यारो 
कोई संगीत नही बन जाता ,
दीवारे बेशक सूनी हो पर 
दिल में तस्वीर जरूरी हे ,
कागज कलम अछरो से ही 
कोई गीत नही बन जात। 
सरोज कुमार मिश्र



क्या राजे ,क्या महराजे अपनी घर घर शोहरत है
मधुवन पतझर चन्दा तारे , ये सब मेरी बदोलत है 
तुमको जिसदिन लगे जरुरत आना ,सब कुछ ले जाना 
एक कलम कुछ कोरे पन्ने ,बस कवि कि इतनी दौलत है ----------सरोज मिश्र -------

SAROJ KUMAR MISHRA

मरना पड़ता हे रोज उसे , जो जीता हे उपकारो मे 
ऐसे गिरी नही घर की छत , हे दोष कोई दीवारों मे
प्रतिभाए सब हुई उपेछित राजनीति की मनमर्जी हे 
जुगनू राजा घोषित हो गये ,सूरज के दरबारों मे 
******************सरोज मिश्र********



पंख ये कितना उड़े, तुम खो गये आकाश बनकर
देह से ना और खेलो , तुम प्रिये उपवास बनकर
आदि से हो अंत तक, बस एक मेरा ही नियंत्रण 
आ मिलो ऐसे कोई, तुम पर्व का अवकाश बनकर 

---------------------- सरोज मिश्र---------------------



पंख यह कितना उड़े, तुम खो गये आकाश बनकर देह से ना और खेलो , तुम प्रिये उपवास बनकर आदि से हो अंत तक, बस एक मेरा ही नियंत्रण आ मिलो ऐसे कोई, पर्व का अवकाश बनकर ---------------------- सरोज मिश्र----------------------- 

 कितने आकर बसे नयन मे,कितने मन से निकल गए ,
हम रहे कभी सन्नाटो से ,तो कभी शोर बन मचल गए ,
जिसने हमको जैसा देखा ,हम उसके अनुरूप दिखे ,
धरा हाँथ पर हाँथ किसी ने ,पानी से हम पिघल गए ।

SAROJ KUMAR MISHRA

मेरे समस्त मित्रो को समर्पित मेरा नया गीत 

मै खुद को चौसर पर हारू ,
और किसी की जीत बनो तुम
ऐसा तो तय नही हुआ था "

धीरज धरते सदा किनारे 
नदियों ने तोडी मर्यादाए 
सुख निर्मोही ढीट बड़ा है 
दुःख तो आये बिना बुलाये 
खो देना ही पा लेना हे 
मंत्र समझकर रहे पूजते 
हमने तब सयंम को साधा 
जब पाने के अबसर आये 

में बन जाऊ नियम पुराना 
नई नबेली रीत बनो तुम
ऐसा तो तय नही हुआ था "

मैंने सावन को देखा हे 
कितने रूप कलश छलकाते 
कुछ बसंत देखे हे मैंने 
महज फूल पर प्यार लुटाते 
रूपनगर के इन भवरो की 
चाहत में बस आकर्षण था
नागफनी को मिली सजाबट 
कमल कीच में है सकुचाते 

मै बन जाऊ वैराग्य विजन का 
मधुर अधर का गीत बनो तुम 
ऐसा तो तय नही हुआ था "
---------------------------------"सरोज मिश्र