शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

KRISHNAADHAAR MISRA

सांध्य -संकेत


बूढी इमारतों की  बेतरतीब ,
पंक्तियों मैं लगे ,
कंगूरों ने ,
सांझ को अपने अनरूप ,
काट , झांट दिया है.
कमरे की खिड़की  से झांकता आकाश ,
उस पार से कूद कर आने के
 प्रयत्न में
काफी छत -विछत हो गया है ,
धीरे-धीरे
कोने में छिपे
अंधेरे नें
हम दोनों के बीच ,
मेज़ भर दूरी को भरना आरम्भ
कर दिया है.
इसी दूरी में से गुज़रते हम देख चुके हैं .
पल , घंटे , और ...........................!
इस पारदर्शी समय पर ,
लिखे जा चुके हैं ,कितने ही ,
मौन के संवाद .
अचानक मौन भंग करते हुए
तुमने कहा
" अँधेरा हो गया है , बत्ती जला दें  "
बत्ती जलाकर हाथ जोड़
नमन मुद्रा में जब तुमने सर झुकाया ,
मुझे लगा -
सारा उजाला तुम्हारी  मांग में ,
भरकर सिंदूरी हो गया

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