गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

AJAY GUPTA

अनचाहे ही


इस्पात नहीं ,हम हाड-मॉस के पुतले ,
कैसे अटूट रहने का दंभ करें.
अपने क़द से क़द दरवाजे का,
छोटा  हमें दिखा .
झुक कर आओ स्पष्ट अछरों ने
आदेश  लिखा.

तेरी बस्ती में एक ज़िन्दगी जीने के खातिर ,
हम क़दम क़दम पर अनचाहे ही कितनी बार मरे.

हम उनपर फिसले जो छिलके
अक्सर तुम ने फेंके.
यों सहज नहीं था सरेआम जो
हम घुटने टेकें .

जब मात्र सदाशयता  का  ओढा खोल दुराशा ने ,
आशीष -स्नेह  के वचनों में भी घुले मिले  फिकरे.

कट चुकी पतंगों या
अपदस्थ नवाबों जैसे हैं.
कुछ मजबूरी है दीमक लगी
किताबों जैसे हैं .

अब ट्रेल नहीं हो चुके ताश के तरेपंवे  पत्ते ,
किस तरह कहो ,किस ढंग से  , जय यात्रा प्रारंभ करें.

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