बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

AJAY GUPTA

जीवित अभी है आग

शीत में काँपता-ठिठुरता  दिन ,
सूर्य ढ़ोय जा  रहा  निरुपाय .

शीत ,इतनी शीत है उस पर,
एक मुठी भी नहीं भिछ्ती ,
कसमसाता सूर्य का अंतर ,
किन्तु, प्रत्यंचा  नहीं खिंचती.

क्यों,अंगारों की कगारों पर ,
उतर आया राख का समुदाय .

क़हक़हे जी भर लगाते हैं ,
मोम की मीनार वाले लोग.
एक दीपक भी जला उसपर ,
तुरत बिठलाया गया  आयोग .

क्यों न जाने लोग गीता में,
खोजते हैं आज पीटक निकाय .

लोग कहते हैं किताबों में ,
हैं अभी भी आदमी जीवित .
ह्रदय में जीवित अभी है आग,
और आँखों में में नमी जीवित,

ह्रदय  का लावा दिशाओं में , भरे ,
कुछ तो करो शीघ्र  उपाय .

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