रविवार, 13 अक्तूबर 2013

SAROJ KUMAR MISHRA

पंख यह कितना उड़े, तुम खो गये आकाश बनकर
देह से ना और खेलो , अब प्रिये उपवास बनकर
आदि से हो अंत तक, बस एक मेरा ही नियंत्रण 
आ मिलो मुझसे कोई तुम, पर्व का अवकाश बनकर 

---------------------- सरोज मिश्र-----------------------

कल एक मुक्तक लिखा था ,मन विवश कर रहा था उसमे कुछ परिवर्तन के लिए ,सो कर दिया ------और अब मित्रो के हवाले कर रहा हू 

मरना पड़ता हे रोज उसे , जो जीता हे उपकारो मे 
ऐसे गिरी नही घर की छत , हे दोष कोई दीवारों मे
प्रतिभाए सब हुई उपेछित राजनीति की मनमर्जी हे 
जुगनू राजा घोषित हो गये ,सूरज के दरबारों मे 
******************सरोज मिश्र****************


अजब तुम्हरी दुनिया देखी ,अजब लगे दस्तूर 
महफ़िल जिनके नाम सजी थी वे महफ़िल से दूर 
कतरब्योत की तरकीबो के रंग बड़े थे गहरे
कलम पड़ी हे माथा फोड़े , गले हुए मशहूर 

----------------------------सरोज मिश्र ------------------- 

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