गुरुवार, 13 जनवरी 2011

पगले कुछ तो धीर धर

तुम तो रेंगे ,सदा समय की ,खींची हुई लकीर पर ,
में तो आया ,नागफनी के , सारे जंगल चीर कर .


तुम ने ही तो बड़े प्यार से ,
सींची क्यारी शूल की,
तुमने ही तो  क़दम-क़दम पर ,
रोपी पोध बबूल की ,
चिंतित क्यों हो , जबकि बेहया ,
उग आया उद्यान में ,
सोच-समझकर , जाँ-बूझकर ,
तुमने ही तो भूल की .


तुम तो फंसते रहे ,मुश्किलें  खुद अपनी तामीर कर ,
में तो आया ,नागफनी के , सारे जंगल चीर कर .


बाल-अरुण को दोपहरी से ,
पहले भाई शाम क्यों,
उदय्लित सागर की जपती,
लहर-लहर हरी नाम क्यों ?
कोई तो अंगडाई ले , जागे ,
जलकर दे रौशनी ,
सभी तीलियाँ ,दियासलाई में ,
करती विश्राम क्यों ?


धरकर चरण मचलना सीखो , कातिल की शमशीर पर ,
में तो आया ,नागफनी के , सारे जंगल चीर कर .


तुम चाहो तो तापी हथेली  से ,
सहला दो शीत को,
मीत गीत से ही कुरेद दो ,
ज्वालामई  अतीत को ,
फौलादी संकल्पों से चाहो तो ,
रेत  बना डालो ,
नरता की छाती पर उठती हुई ,
अन्य की भीत को,


लेकिन तुम तो फूल चढ़ाते , किस्मत की तस्वीर पर,
में तो आया ,नागफनी के , सारे जंगल चीर कर 


तुमने समझा शलभ बाबरे !
बर्रयों की भीर को ,
गंगाजल समझा तुमने ,
गंदे नाले के नीर को ,
किसी तरह से भी गुज़ार लो ,
जीवन के अवशेष दिन ,
जान रहा , अनुमान रहा ,
तेरे अंतस की पीर को ,


फिर से हंस चुगे गा मोती ,पगले कुछ तो धीर धर ,
में तो आया ,नागफनी के , सारे जंगल चीर कर 


                                    अजय गुप्त 

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