गुरुवार, 18 नवंबर 2010

AJAY GUPTA

मन होता

पता नहीं क्यों हम नितांत रह गए अकेले,
मन होता है हमको भी खो देते मेले .
हमको आज नहीं ,कल दिखता
या कल दिखता .
बहुत थके हम ढोते-ढोते
अंतर्मुखता .
योवन ने कब ली अंगडाई जान न पाया ,
याद नहीं कब बचपन में गुब्बारे खेले .
कठिन काम है
ज़िम्मेदारी का शव ढोना
सरल नहीं है
एक व्यवस्था का बुत होना .
चाहा पुरवा या पछुवा के साथ उडूं मैं
किन्तु फ्रेम मैं कास जाने के दंशन झेले

1 टिप्पणी:

  1. डा. नागेश पांडेय 'संजय '11 दिसंबर 2010 को 3:29 am बजे

    नवगीत अत्यंत मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी है . मँजी हुई कलम को सराहूँ या रचना के प्रस्तोता को ! शुभकामनाओं सहित डा. नागेश पांडेय 'संजय '

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