गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

हम और तुम






'क' से कबूतर 'ख' से खरगोश,
'ग' से गधा या कहीं-कहीं  गणेश ,
इन्हीं शब्दों की ही जोड़-तोड़ मैं कटी है 
सारी उम्र
इन्हीं शाब्दिक गठ-बन्धनों  मैं बंधे हैं,
रिश्ते और सम्बन्ध .
कभी-कभी एक छोटी कंकड़ी नुकीली सी 
उठा कर  खुरच  दिया था --
तुम्हारा नाम ,
पेड़ के मुलायम तने पर "अर्जुन; के 
अब उम्र की ढलान पर 
ह्रदय रोग की पीड़ा में,
डाक्टर की सलाह से जब 
"अर्जुन'  के वृछ  की छाल 
उतारने गया 
तो वही नाम , वही समबन्ध 
जो उकेरे  थे  पेड़ पर 
अट्टहास कर उठे 
मेरी रेत-सी फैली नापुन्सुकता पर .


                    अरविन्द मिश्र

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