तुम तो रेंगे ,सदा समय की ,खींची हुई लकीर पर ,
में तो आया ,नागफनी के , सारे जंगल चीर कर .
तुम ने ही तो बड़े प्यार से ,
सींची क्यारी शूल की,
तुमने ही तो क़दम-क़दम पर ,
रोपी पोध बबूल की ,
चिंतित क्यों हो , जबकि बेहया ,
उग आया उद्यान में ,
सोच-समझकर , जाँ-बूझकर ,
तुमने ही तो भूल की .
तुम तो फंसते रहे ,मुश्किलें खुद अपनी तामीर कर ,
में तो आया ,नागफनी के , सारे जंगल चीर कर .
बाल-अरुण को दोपहरी से ,
पहले भाई शाम क्यों,
उदय्लित सागर की जपती,
लहर-लहर हरी नाम क्यों ?
कोई तो अंगडाई ले , जागे ,
जलकर दे रौशनी ,
सभी तीलियाँ ,दियासलाई में ,
करती विश्राम क्यों ?
धरकर चरण मचलना सीखो , कातिल की शमशीर पर ,
में तो आया ,नागफनी के , सारे जंगल चीर कर .
तुम चाहो तो तापी हथेली से ,
सहला दो शीत को,
मीत गीत से ही कुरेद दो ,
ज्वालामई अतीत को ,
फौलादी संकल्पों से चाहो तो ,
रेत बना डालो ,
नरता की छाती पर उठती हुई ,
अन्य की भीत को,
लेकिन तुम तो फूल चढ़ाते , किस्मत की तस्वीर पर,
में तो आया ,नागफनी के , सारे जंगल चीर कर
तुमने समझा शलभ बाबरे !
बर्रयों की भीर को ,
गंगाजल समझा तुमने ,
गंदे नाले के नीर को ,
किसी तरह से भी गुज़ार लो ,
जीवन के अवशेष दिन ,
जान रहा , अनुमान रहा ,
तेरे अंतस की पीर को ,
फिर से हंस चुगे गा मोती ,पगले कुछ तो धीर धर ,
में तो आया ,नागफनी के , सारे जंगल चीर कर
अजय गुप्त
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