अनचाहे ही
इस्पात नहीं ,हम हाड-मॉस के पुतले ,
कैसे अटूट रहने का दंभ करें.
अपने क़द से क़द दरवाजे का,
छोटा हमें दिखा .
झुक कर आओ स्पष्ट अछरों ने
आदेश लिखा.
तेरी बस्ती में एक ज़िन्दगी जीने के खातिर ,
हम क़दम क़दम पर अनचाहे ही कितनी बार मरे.
हम उनपर फिसले जो छिलके
अक्सर तुम ने फेंके.
यों सहज नहीं था सरेआम जो
हम घुटने टेकें .
जब मात्र सदाशयता का ओढा खोल दुराशा ने ,
आशीष -स्नेह के वचनों में भी घुले मिले फिकरे.
कट चुकी पतंगों या
अपदस्थ नवाबों जैसे हैं.
कुछ मजबूरी है दीमक लगी
किताबों जैसे हैं .
अब ट्रेल नहीं हो चुके ताश के तरेपंवे पत्ते ,
किस तरह कहो ,किस ढंग से , जय यात्रा प्रारंभ करें.
kamal ki kavita..
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