जीवित अभी है आग
शीत में काँपता-ठिठुरता दिन ,
सूर्य ढ़ोय जा रहा निरुपाय .
शीत ,इतनी शीत है उस पर,
एक मुठी भी नहीं भिछ्ती ,
कसमसाता सूर्य का अंतर ,
किन्तु, प्रत्यंचा नहीं खिंचती.
क्यों,अंगारों की कगारों पर ,
उतर आया राख का समुदाय .
क़हक़हे जी भर लगाते हैं ,
मोम की मीनार वाले लोग.
एक दीपक भी जला उसपर ,
तुरत बिठलाया गया आयोग .
क्यों न जाने लोग गीता में,
खोजते हैं आज पीटक निकाय .
लोग कहते हैं किताबों में ,
हैं अभी भी आदमी जीवित .
ह्रदय में जीवित अभी है आग,
और आँखों में में नमी जीवित,
ह्रदय का लावा दिशाओं में , भरे ,
कुछ तो करो शीघ्र उपाय .
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