'क' से कबूतर 'ख' से खरगोश,
'ग' से गधा या कहीं-कहीं गणेश ,
इन्हीं शब्दों की ही जोड़-तोड़ मैं कटी है
सारी उम्र
इन्हीं शाब्दिक गठ-बन्धनों मैं बंधे हैं,
रिश्ते और सम्बन्ध .
कभी-कभी एक छोटी कंकड़ी नुकीली सी
उठा कर खुरच दिया था --
तुम्हारा नाम ,
पेड़ के मुलायम तने पर "अर्जुन; के
अब उम्र की ढलान पर
ह्रदय रोग की पीड़ा में,
डाक्टर की सलाह से जब
"अर्जुन' के वृछ की छाल
उतारने गया
तो वही नाम , वही समबन्ध
जो उकेरे थे पेड़ पर
अट्टहास कर उठे
मेरी रेत-सी फैली नापुन्सुकता पर .
अरविन्द मिश्र
गूढ़ किँतु विचारणीय । चिरसामयिक । बधाई ।
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